एक शाम ठहर कर देखा
एक शाम ठहर कर देखा, समा की खूबसूरती,
जैसे तुम्हारी यादें मसरूफ़ियत के बाद रही है।
सब जस के तस, चाँद, पेड़, तालाब, आसमान,
साल हो गए, पर देखो तुम्हारा होना जस के तस।
तुम्हें सोंचते हुए जब घड़ियां थम जाती है,
कहीं दूर, कविताओं के भवर में, उलझा रहा हूँ मैं।
बड़ा मनोरम है ख्यालों वाली कविताओं को लिखना,
मसरूफ़ियत ऐसी, न दिन का होश, न रात की खबर।
हृदय से स्फुटित करुणा, वेदना और स्नेह के बाद,
हर उपजी कविता और मेरे मध्य, केवल तुम रहे।
एक रोज जब वक़्त निकाल कर आओ मिलने,
तब रहना तुम हूबहू अपने, हूबहू याद रखने को।