एक शाम ऐसी कभी आये, जहां हम खुद को हीं भूल जाएँ।
एक शाम ऐसी कभी आये, जहां हम खुद को हीं भूल जाएँ,
भूल जाएँ की दर्द बहता है, इन रगों में, खुशियां कभी हमसे मिलने भी यूँ आये।
दरवाज़ों के पीछे बंद हो जाए तन्हाईयाँ कभी, आँगन में महफिलें हमारी भी सज जाएँ,
दरख़्त यूँ हीं नहीं खड़े रहें उस वक़्त में, पंछियों के गीत सुन उसे भी सुकून आये।
दरार जो दिलों को रुसवा करते हैं, एक शाम बस दीवारों के हिस्सों में जाए,
लकीरें जो किस्मत को जुदा करतीं हैं, कुछ पल कभी सरहदों पर हीं मुस्कुराये।
वो जुगनू जो रातों के मोहताज़ होते हैं, अपनी मर्ज़ी से उस पल में जगमगाये,
ख़्वाहिशें बेहोश पड़ी हैं बरसों से, आलम होश का उसे भी जगा जाए।
जुदाई आती रहे हर बार मुड़ कर, बिछड़ना कभी ज़हन में हमारे ना आने पाए,
हंसी जो गूंजती है जहन में अबतक, उस शाम घर में हसीं, तेरी वो गूंज जाए।
बारिशें जो आंसुओं का परदा बनने को बरसती हैं, ख़ुशी से खिड़कियों से हमारी टकराएं,
कारवां जो भटकता सा फिर रहा है बरसों से, घर की दहलीज से वो भी तो रूबरू हो पाए।
बंधनों के नाम पर ठगी जाती है दुनिया सारी, ऐसी शिद्दतें हो की बिना बंधन तुम्हें बाँध पाएं,
मौत तो हर पल में जिये जाते हैं, उस पल में सपनों को छूकर हम भी ज़िंदा सा हो पाएं।
हाँ, मन्नतों से घबराती है ये रूह मेरी, पर कोई सितारा कभी उस पल में भी टूट जाए,
किस्सों में कई नाम गुनगुनाते हैं, बिना किसी किस्से के तुम्हारी कहानी हीं हम बन जाएँ।