एक शहीद की महबूबा
क्या कहूं मैं तुमसे ,यह क्या हो गया ,
मैं अब दिल को क्या समझा पायूंगी।
तुमसे जोड़ा था कई जन्मों का रिश्ता ,
खबर न थी यूं मैं तन्हा हो जायूंगी।
तुमने न किया था मुझसे कोई वायदा ,
मगर मैं तो अपना वायदा निभायूंगी।
बेशक नहीं लिए हमने शादी के सात फेरे ,
मगर इस बंधन को मैं न तोड़ पायूँगी।
मालूम है मुझे तुम कभी लौट के ना आओगे ,
मगर कयामत तक फिर भी इंतजार करूंगी।
तुमने न बांधा हो बेशक किसी फर्ज से मुझे,
मगर तुम्हारे बूढ़े माता पिता को मैं संभालूंगी।
मुझे नाज़ है तुम पर ए मेरे बहादुर सिपाही ,
आंसू बहाकर कुर्बानी का अपमान न करूंगी।
मैं तुम्हारी पत्नी न बन सकी दुर्भाग्य से तो क्या !
एक अमर शहीद की महबूबा तो कहलायूंगी।
अब जब तक इस तन में है सांस बाकी ,
तेरी यादों का दिया दिल में जगाए रखूंगी ।
तुम मुझे बेशक भूल जाओ उस लोक में जाकर ,
मगर ए मेरे बिछड़े साथी ! मैं तो तुम्हें न भुला पायूंगी।