एक लड़की ….
हाँ ! मैं लड़की हूँ ,
तो क्या लड़की होना गुनाह है ,।
ऐसा तुम सोचते हो ,
तुम्हारा क्या!
तुम तो दोगले हो ।
सदा से रहा है तुम्हारी ,
कथनी और करनी में फर्क ।
तुम दर्शाते हो मेरे लिए नफरत ।
करते हो मेरी उपेक्षा और अपमान,
तभी तो रोकते हो मुझे तुम,
जन्म लेने से ।
मैं तो अभिशाप हूँ जैसे तुम्हारे लिये.।
और जो नवरात्रों में देवी पूजा करते हो। व्रत रखते हो .।
छोटी -छोटी कन्याओं को
बुलाकर खीर पूरी खिलाना ,
तोहफे देना ,
क्या है यह ?
बस ! कुछ दिन की आव-भगत !
उसके बाद…
वोह माता भी तो लड़की ही है .
उनके लिए तो भक्ति -भाव और
और लड़की के लिए नफरत .
क्यों?
तुम मुझे बोझ समझते हो .
घर की चार -दिवारी में बंद कर ,
सामाजिक मर्यादा का वास्ता देकर ,
आजीवन कारावास दे देते हो .
क्यों ?
मुझे ही क्यों ?
भाई को क्यों नहीं .
क्यों की वोह लड़का है ,इसीलिए!
यह कैसा पक्षपात है ?
दुर्गा माता के गुणों का तो बखान .
और मेरे लिए अबला होने फरमान .
क्यों ?
हाँ मैं लड़की ज़रूर हूँ
मगर मुझे भी जीने का अधिकार है.
मैं क्या पहनूं
और क्या ना पहनूं ,
मुझे कहाँ जाना है ,
कहाँ नहीं ,
क्या करना है ,
क्या नहीं .
मुझे सोचने दो .
मुझे मेरे सपने देखने दो .
मुझे सपने देखने का पूरा अधिकार है.
मेरे पैरों में बेडियाँ मत डालो .
मगर !
मगर तुम कहाँ मानते हो .
मैं सिर्फ एक लड़की हूँ ,
इंसान नहीं .
हर क़दम यह एहसास करवाते हो।
मैं लड़की हूँ तो क्या सार्वजानिक संपत्ति हूँ!
भोग्या हूँ !
। नहीं !
मगर तुम्हारी तंगदिली , कुत्सित दिमाग ने ,
मुझे सदा गलत आंका .
तार -तार कर मेरी अस्मत के दामन को ,
मुझे भरे चोराहे पर फेंका .
तुम तो हो गए हो बिलकुल ,
निरंकुश ,खूंखार दरिन्दे की तरह .
जो आमदा रहता है सदा किसी भी
खिली -अधखिली ,मासूम कली को
नोचने , खसोटने ,रोंदने ,और फिर तोड़कर
फाड़कर फेंकने में ।
तुम्हारे अंदर का इंसान मर गया है शायद .
काश !
काश ! तुमने एक बार तो सोचा होता !
मुझे मात्र शरीर के बजाये
एक इंसान समझा होता .
मेरे वस्त्रों तो टटोलने के बजाये मेरा ह्रदय टटोला होता.
मुझमे है आत्मा .
मुझमें है संस्कार ,सभ्यता , और महान मानवीय गुणों का भंडार .
मैं हूँ एक विचार .
मैं मात्र लड़की नहीं ,
मैं एक सम्पूर्ण व्यक्तित्व हूँ .
मैं ही हूँ वही महान विभूतियाँ .
जिन्होंने देश -दुनिया ,की सभ्यताओं को बदला .
मुझे धारण करते गर तुम पुरुष!
तो पूरण पुरुष बन गए होते .
मगर तुम तो रहे निरे पशु के पशु ही .
मुझे बस शरीर माना .
नहीं देखा तुमने मेरे चेहरे को .
इन आँखों को ,
और उनमें छुपे सूनेपन को .
देखते गर तो तुम्हारा ज़मीर
चीत्कार कर उठता .
तुम्हारे भीतर भी ज़रूर कुछ टुटा होता .
मगर नहीं !
असल में तुम ही बस शरीर हो .
तभी तुम दरिन्दे हो .
तुम इंसान रहे कहाँ !
मगर मैं एक इंसान हूँ .
मुझे फिर भी खुद पर नाज़ है .
हाँ! मैं लड़की हूँ !
नोट – एक लड़की का रोष सम्पूर्ण पुरुष समाज से