एक लड़का
एक लड़का अघोरी सी आँखें लिए
स्वप्न के निर्जनों में भटकता रहा।
फेरता जीभ चटखे हुए होंठ पर
गाल के कुंतलों से उलझता रहा।
मैं सुबह की किरण सो लगी पूछने यूँ भटकते हुए तुम कहाँ जा रहे ?
इस तरफ तो कोई गाँव बस्ती नहीं, फिर वहाँ कौन है तुम जहाँ जा रहे ?
सौम्य मुख ये बताओ कहीं भूल से, राह विस्मृत तुम्हें तो नहीं हो गई,
इस तरह क्यों हिरण से मुझे ताकते, क्या नयन ज्योति ही तो नहीं खो गई ?
थे अबोले अधर ही नहीं, “नैन भी”
ये अडिग मौन मुझको खटकता रहा।
एक लड़का अघोरी सी आँखें लिए
स्वप्न के निर्जनों में भटकता रहा।
दिन चढ़ा सूर्य का ताप बढ़ने लगा, गेहूएँ भाल की त्योरियां चढ़ गईं।
श्रांत मुख से टपकती हुईं बूँद से उस शिला वक्ष की उर्मियाँ बढ़ गईं।
यूँ लगा देह की भीतरी खोह में, मौन ही स्वाँस का होम करने लगा।
अधखुले होंठ से व्योमगामी धुआँ, स्रोत पर जामुनी रंग भरने लगा।
आप ही में रमा इक तपस्वी, सभी
रूपहीनाओं के मन अखरता रहा।
एक लड़का अघोरी सी आँखें लिए
स्वप्न के निर्जनों में भटकता रहा।
पथ के अभ्यस्त से जान पड़ते कदम, झील में नाव ज्यों, त्यों ही चलते गए।
सूर्य भी ले विदा, श्रमरती देह पर, एक सुर्खी भरा लेप मलते गए।
चाँदनी पेड़ की डालियों में छुपी, संकुचित हो युवातन निरखने लगी।
उस के आँखों की कोरो से न जाने क्यों एक बदली अचानक बरसने लगी।
जैसे जीवन हो सुधियों की कोई नदी,
और मन जो भँवर में उतरता रहा।
एक लड़का अघोरी सी आँखें लिए
स्वप्न के निर्जनों में भटकता रहा।
© शिवा अवस्थी