एक मुसाफिर की प्रतिज्ञा !
भटकता हुआ मुसाफिर ,आश्रय ढूंँढ़ रहा हूंँ।
चला आया दूर से, रुका नहीं कहीं पर,
गन्तव्य अभी दूर है, जाना न जाने किधर है ।
राह में मिली एक कुटिया, सुंदर और सुरम्य,
आश्रय देख यहांँ पर, माँ ने मुझे धारण किया ।
ले लिया वचन मांँ से, दुख न देना कभी तुम,
अन्यथा छोड़ ये आश्रय, गन्तव्य पर चला जाऊंँगा ।
आया हूँ तेरे घर पर, आंँचल का है तेरा साया ,
कष्ट मिले हैं मुझको , राह पर चल न पाया ।
अकेला इस मंजर में, भटकता मैं रहा हूंँ,
ऋणी मैं हूंँ तेरा, रहूंँगा हर जन्म में ।
चला बस जो मेरा, सदैव पास तेरे रहूंँगा ,
जाना मुझे पड़ेगा, गन्तव्य अभी दूर है ।
काँटो पर चलकर हूँ आया,फूलों की सेज बिछा दी,
आश्रय अब न लूँगा, कहीं और जाकर अब मैं ।
कष्टों से फिर है मिलना, क्या तू अब सहन करेंगी,
आश्रय दिया न होता, दुःख तुझको न होता ।
जा रहा हूंँ सफर पर , गन्तव्य अभी दूर है,
पहुंँच कर मंजिल पर, वापस यहीं आऊंँगा ।
फिर न कहीं जाऊंँगा, आश्रय क्या देगी दोबारा,
जन्म फिर से लूंँगा, कष्ट अब न तुझको दूंँगा।
वरना भटकता रहूंँगा, जीवन पर्यंत यहांँ पर।
#…..बुद्ध प्रकाश, मौदहा (हमीरपुर)।?