एक बेमिसाल कविता संजय जोठे की
तुम्हारा काव्य
तुम्हारा साहित्य
और तुम्हारा सौन्दर्यशास्त्र
सब व्यर्थ हैं मेरे लिए
ये न मेरे जख्मों के मरहम बनते हैं
न मेरी प्यास के लिए पानी बनते हैं
न मेरी भूख के लिए रोटी बनते हैं
ये तुम्हारे अपने उपकरण हैं
जो तुमने अपनी मदद को रचे हैं
सदियों से तुम्हारा मूक दर्शक मन
शोषण और दमन के खेल को देख
कभी किसी ग्लानि से भर जाता होगा
कभी किसी कमजोर क्षण में
कोई अपराध बोध तुम्हें काटता होगा
इसीलिये रचते हो तुम
वो काव्य वो कथा वो तस्वीर
जिसमे दमित और दलित की पीड़ा का
एक भयावह चित्र उभरता है
इस चित्र को उभारकर
कुछ न करते हुए भी
कुछ करने का तुम नाटक करते हो
इस तरह ग्लानि और अपराध की टीस से
तुम्हे राहत मिलती है
लेकिन मुझे न राहत मिलती है
न कोई समाधान
पीड़क और पीड़ित को
पीड़ा के चित्रण की क्या जरूरत?
वे दोनों भलीभांति इसे जानते हैं
अपने अपने ढंग से
वे नहीं जानते तो
बस एक समाधान
जो तुम जानते हो
लेकिन बताते नहीं
समाधान छुपाकर
पीड़ा के चित्रण की जरूरत
मेरी जरूरत नहीं है
ये तुम्हारी जरूरत है
तुम जो कि अपने और अपनों के
उस पवित्र द्विज अस्तित्व को
मेरे एकमात्र जन्म की संभावना को मसलकर
युगों युगों से बचाते आये हो
तुम जानते हो
कि समाधान के साकार होने में
तुम, तुम्हारी रचना और तुम्हारे द्विजत्व
तीनों का अंत हो जाएगा
इसलिये तुम टालते हो समाधान
और रचते हो पीड़ा के चित्र बार बार
जिसमे मेरी कौम का रिसता लहू
तुम्हारी कूचियों और कलमों में
रंग बनकर खिलता है
लेकिन आज
ये कूची और ये कलम
मैं अपने हाथ में लेता हूँ
ताकि मेरी कौम
अपना काव्य अपना साहित्य
और अपना सौन्दर्यशास्त्र
खुद रच सके
अपने रिसते लहू से
अपने भविष्य का समाधान
अपने ही हाथों खुद लिख सके
– डॉ संजय जोठे