एक बच्चे का अपनी मां से एक कल्पना भरा प्रश्न
एक माँ जो दिन भर बिल्डिंगों मे काम करती है ,एक बच्चा जो बिल्डिंगों को बड़े ध्यान से देखता है और अपनी माँ से पूछता है ……………………….
माँ तू लोगों के सपनों के आशियाँ बनती है
दिन भर पसीने से सराबोर हो खुद को थकाती है
हमारे चैन के लिए खुद को बेचैन करती है
कभी इन मकानों मे कहीं हमारा भी घर होगा
मिट्टी और धूल की लथपथ से निकलकर
कोई सपना कभी हमारा क्या पूरा कभी होगा
बड़े से ड्रॉइंग रूम मे बड़ा साजो सामान कोई होगा
चमकती हुई दीवारों पे क्या अपना फोटो फ्रेम कोई होगा
कभी .. .. .. .. …………………………
क्या वो बड़ा सा गार्डन वो स्वीमिंग पूल भी होगा
ठंडी हवाएं आएं जिसमे वो ए.सी. फैन भी होगा
एक बड़ा सा टी.वी.जिसमे कार्टून तो होगा
कभी …………………………….
मोमबत्ती की लाइट बड़ी छोटी सी लगती है
बड़े बड़े घरों मे बड़ी रोशनी उभरती है
क्या कभी इन रोशनियों पे हमारा भी हक होगा
कभी ……………………………………….
तरसती हुई निगाहें जब माँ को सवालों से घेरती है
इतने सारे प्रश्नों मे जब खुद को समेटती है
कहती है तब उलझे से शब्दों से………….
घर उनके हैं रोशन उनके चिरागों से
अपनी जिंदगी चलती है कितने उधारों से
अपने सपने भी सर झुकाकर जीते हैं
कितनी बार तो हम भूखे ही सोते हैं
मत रख ऐसे अरमान तुझे भी दुख होगा
ये सपना है अमीरों का पूरा उनका ही होगा
पूरा उनका ही होगा …………………
माँ की सारी बातें रात भर उसको जगाती हैं
बेचैन सी साँसे उसका दिल उलझाती हैं
माँ की हर बात जब दिल मे उतरती है
बस एक खामोशी मे पूरी रात गुजरती है
न जाने उसका कल क्या फैसला होगा
जब उसकी आँखों मे सपना फिर वही होगा
कभी इन मकानों मे कहीं अपना भी घर होगा !
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