एक पिता की मृत्यु हो जाने के बाद का यथार्थ
मेरे दोस्त के पिता काफी दिनों से बीमार थे
दो बेटियां थी उनकी और बेटे भी चार थे
बच्चों को एक बाप पालना अखरता था
मां के बाद केवल एक बेटा उन्हें रखता था
साल दर साल समय यूँही व्यतीत हो रहा था
कुछ अच्छा कुछ बुरा था पर ठीक बीत रहा था
लगभग रोज़ाना ही फ़ोन पर बात होती थी
कुछ सामाजिक कुछ पारिवारिक होती थी
पिता जी के स्वास्थ्य से जुड़ी भी होती थी
कुछ मीठी पर ज्यादातर कड़वी होती थी
रोज़ाना की तरह मोबाइल बजे जा रहा था
व्यवस्तता के कारण मैं उठा नही पा रहा था
जैसे ही मैंने पलट कर मित्र को फ़ोन मिलाया
पापा जी का देहांत हो गया है धीरे से बताया
बीमारी के कारण इस पल का पूर्व आभास था
मेरा मित्र अकेला ही था न कोई उसके पास था
धीरे धीरे खबर मिलती रही लोग जुड़ते रहे
सबको सूचना हेतु फोन पे फ़ोन बजते रहे
दूर से आने वालों की भी इन्तज़ार करनी थी
साथ ही शव यात्रा की भी तैयारी करनी थी
लोगों का आना जाना लगातार जारी था
फलां कब तक आएगा पूछना भी जारी था
जो कभी जीवन में a c में नही सोया था
आज मरणोपरांत ही सही a c में सोया था
कुछ हंसते हंसते बतिया रहे थे
कुछ बतियाते हुए हंस रहे थे
समय बीतता रहा संध्या बेला भी आ गयी
सभी लोग आ चुके थे और गमी भी छा गयी
अर्थी भी तैयार थी आंगन में दहलीज के अंदर
पिता जी भी आ गए नव वस्त्रों में कफन ढककर
अपनो ने ही अर्थी पर अपने हाथों से लिटाया
संग खड़े लोगों ने रस्सी से कस कर बंधवाया
बेटों ने कंधों पर जब पिता की अर्थी उठाई थी
ना चाहते हुए भी चारों की आंखें भर आयी थी
राम नाम की गूंज यथार्थ का बखान कर रही थी
पिता की अर्थी कांधे चढ़ दहलीज पार कर रही थी
चल पड़े थे एक नए सफर पर वापिस नही आने को
हंसते हंसते विदा करो तुम इस मुसाफिर को जाने दो