एक पाती
प्रिये ! तुम्हारी हसरतों का पैगाम, इन हवाओं से कल ही मिला।
नाराज़ हो तुम उस पर लिखा था, ऐसे कब तलक रह पाओगी।।
देखना चाहती हो मेरी झलक, तो लो मन की आँखों से देख लो।
सच कहता हूँ यकीनन उसमे, अपने लिए प्यार ही प्यार पाओगी।।
मैं नहीं बदला वक़्त के सितम से, तो तुम्हें तन्हाइयों का डर क्यों।
बेचैन दिल को सम्भालो तो, ये दूरियाँ भी पल में ही मिट जाएगी।।
क्योंकि जो डर गया वो रह गया, बन्द सा किसी कमरे के कोने में।
फिर कहाँ कब कैसे भला ये आत्मा, जीवनचक्र पार कर पाएगी।।
वैसे भी मैं तो तुम्हें डराना नहीं, खिलखिला कर हँसाना चाहता हूँ।
हाँ तेरी हर चाहत और भावनाओं को, तुझसे मिलवाना चाहता हूँ।।
ताकि तुम्हारे हृदय की संवेदनाओं में, और तुम्हारे हर खालीपन में।
सिर्फ़ और सिर्फ़ मैं ही रहूँ तुम्हारा, स्वंछन्द सोच बन अधिकार से।।
फिर से वापस जगाना चाहता हूँ, तुम्हारे हर सोए हुए अरमानों को।
जो कि घुट रही है पारिवारिक व, सामाजिक दायित्वों के भार से।।
उठाना चाहूँगा तुम्हारे हर एक नज़ाकत, और नाज़ो भरे नखरों को।
जो बींध कर संकुचित सी कुचल रखती है, तुम्हारे इन अधरों को।।
सच कहूँ तो स्थिर सी मूरत बना तुझे, नहीं निर्जीव करना चाहता हूँ।
हाँ, मैं ज़िंदा हूँ और तुझको भी हमेशा ही, सजीव रखना चाहता हूँ।।
©® पांडेय चिदानंद “चिद्रूप”
(सर्वाधिकार सुरक्षित ०८/०६/२०२०)