एक पराई।
अपनेपन से पास वो आती,
कांधे पे मेरे सिर को झुकाती,
आँखों में उसकी दिखी सच्चाई,
जब-जब मेरे पास वो आई,
कैसा अनोखा रिश्ता उससे,
अपनी लगती है एक पराई,
निस्वार्थ देती वो मुझे सम्मान,
उस पे करता मैं अभिमान,
अधिकार मुझे पे वो जताए ऐसे,
जिससे था मैं अब तक अंजान,
ज़्यादा कुछ तो मैं कह ना पाता,
उसे लगा के गले सम्मान जताता,
दिल के है वो बहुत करीब,
जाने क्यों उस से मैं हिचकिचाते,
मुझे कहती मैं उसका अपना,
जो ख़ुद है मेरे लिए एक सपना,
अपनी बातों जैसी है वो भी प्यारी,
हे ईश्वर उसे तुम ख़ुश ही रखना,
हर दिन वो छूती मेरे मन को,
भर देती मेरे सूनेपन को,
जब भी होती साथ वो मेरे,
भूल जाता मैं सारे अधूरेपन को,
सीधे मेरे दिल में झांकती,
जब-जब मुझसे बात वो करती,
हर दिन एक मीठी याद बन जाता,
जब-जब मुझसे मुलाकात वो करती,
कभी तो लगती मुझसे भी सयानी,
कभी वो लगती है नादान,
देख अपनी प्रति भावना उसकी,
अक्सर हो जाता मैं हैरान,
उसकी कमी ना पूरी होगी कभी,
मेरे जीवन में वो है एक मेहमान,
काँटे उसको छू भी ना पाएं,
हर खुशी से भरा हो उसका जहान।
कवि-अंबर श्रीवास्तव।