एक पड़ाव है क्या तू ज़िंदगी ?
एक पड़ाव है क्या तू ज़िंदगी ?
एक पड़ाव है क्या- तू ज़िंदगी ?
तू भी ठहरा है या मुझको रोके रखा है ।
चलने की आदत भी अब रही नहीं
कितना अच्छा था जब दौड़ता था
कितना सच्चा था जब दौड़ता था
और कितना बच्चा था जब दौड़ता था
आज जब ठहरा हूँ तो सब है मेरे पास
शोहरत ताक़त ,इज़्ज़त और दौलत
लोगों का सलाम ,और इशारे पे जाम
कहने का वक़्त भी ना देते हैं
सोचते ही ख़ुद प्रकट होते हैं
मैं फिर ज़िंदगी से कहता हूँ
क्या यही पड़ाव है तू
ज़िंदगी आइना दिखाती है
झलकें आती है और जाती हैं
एक अहसास सी गुज़रती है
चुपके धीरे से आ के कहती है
तू ने पाया है क्या जो ठहरा है
तूने समझा नहीं ये पहरा है
तोड़ कर इसको भाग जाना है
खोया है जो उसे ही पाना है
मेरा बचपन और मेरी सच्चाई
मेरा हँसना और मेरी अच्छाई
ज़िंदगी एक पड़ाव नहीं
चल कर -रुक कर ,फिर चलना है
ख़ुद को ख़ुद से ही परखना है
बच कर उलझनों से निकलना है
क्योंकि
अब रुकना है तो एक ठहराव के लिए
क्या ग़लत किया इसपर विचार के लिए
रास्ते सही हैं इस चुनाव के लिए
क्योंकि ज़िंदगी तू एक पड़ाव नहीं …,,,
यतीश १२/४/२०१४