एक नई सोच
देकर बंधन धर्म, जाति का
मन से दूर किए उपकार
समा दिया है बस नफ़रत
सब में घुसा है व्यभिचार
भूल गए सब लोक लाज हैं
नहीं कर रहा कोई आगाह
सब रहते हैं ताक में बस
कब कहाँ होगा अब गुनाह
बनाता कोई सनसनी उसे
तो कोई बनाता है हथियार
कम करना उसे चाहे कोई
त्याग, समर्पण का ले विचार
✍?पंडित शैलेन्द्र शुक्ला
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