एक दिन सब ही खाते थे आम आदमी।
ग़ज़ल
212/212/212/212
एक दिन सब ही खाते थे आम आदमी।
दे न पाएगा अब इसका दाम आदमी।
खो रहा धीरे धीरे ये पहचान भी,
देख तस्वीर सोचेगा नाम आदमी।2
इक तरफ भूख है प्यास है दर्द है,
इक तरफ पी रहा रोज जाम आदमी।3
डूबते को सहारा तो ईश्वर का है,
उगते सूरज को करता सलाम आदमी।4
‘प्रेमी’ जीवन में सबसे मिलो प्यार से,
यूं तो जीते रहेंगे तमाम आदमी।5
……….✍️ सत्य कुमार प्रेमी