संदर्भों की आर
कल एक मुसाफ़िर गुजरा, मेरी राह से।
तोल रहा था खुद को कृष्णा के, नाम से।
उत्सुक हो पूछा मैंने, विश्वास से।
कैसे हुआ ऊँचा तु सृष्टि के, नाथ से।
कहता है, छलता हुँ गोपियों को मैं भी मोहपाश से।
जैसे चुराता था वो वस्त्र शाख से।
मैं भी हरता उनके वस्त्र काली-घनी रात से।
मैंने कहा, दंभ आती तेरी हर बात से।
रौंदे स्त्रियों का सम्मान, पैरों की छाप से।
दंभी बोला, देख तो जरा मुझे पास से।
तुझे भी रंग लूंगा, आत्मविश्वास से।
कहा मैंने, आश्चार्य नही होता, तेरी किसी बात से।
ऐसे आँख वाले अंधे, रोज़ टकराते मेरी राह से।
तोले कान्हा को तू, अपने पाप से।
सुनी है गीता कभी, ध्यान से।
द्रोपदी को वस्त्ररत किया, एक पुकार से,
और कंस को मुक्त किया, पाप के भार से।
पहचान है उसकी, राधा के साथ से।
रामनाम भी अमर हुआ, सीता के सम्मान से।
तोलता नहीं खुद को, हर बात से,
और छिपता है, सन्दर्भों की आर से।
पाप पूरे होंगे, तेरे भी, कैसे बचेगा काली के ग्रास से।