एक थी गंगा
एक थी गंगा, मादा तोता,
माँ ने उसको पाल रखा था,
रहती टंगी द्वार के सम्मुख,
रंग-रूप मनभावन उसका,
ब्रह्म-मुहूर्त्त में वह उठ जाती,
‘सीता-राम’ का जाप लगाती,
घर का कोई गुजरता उधर से,
बड़े प्यार से उसे बुलाती,
दूर देख हमें पास बुलाती,
अपनी बोली से रिझाती,
किसी को खाते देख चिल्लाती
अपने हक का खाना पाती,
अजनबी देख वह ‘टें-टें’ करती,
चौकन्ना हो करती रक्षा,
तरह-तरह के करतब करती,
सिद्ध करती अपनी महत्ता,
रही नहीं वह इस दुनियांँ में,
खाली पिंजरे को छोड़ चली,
यह नश्वर शरीर त्यागकर,
उन्मुक्त गगन की ओर चली।
मौलिक व स्वरचित
डा.श्री रमण ‘श्रीपद्’
बेगूसराय (बिहार)