एक डॉक्टर की अंतर्वेदना
हर दिन होता है सामना,
अस्पताल की गलियों में गूंजती चीखों से ,
बेजान बिस्तरों पर पड़े जिन्दा मुरझाए चेहरों से ,
समय की परछाइयों में गुम खुद के स्वप्न धवल ,
वेदना की धारा में बहते वे चक्षु अविरल ।
मेरे अंतःस्थल के कोने में अभी भी स्थिर अपलक ,
समाज की अपेक्षाओं पर खरा उतरने का संकल्प ,
कहलाऊ मैं जीवन रक्षक !
तभी तो सुननी है मुझे हर प्रार्थना हर उदगार ,
हर एक सिसकती उठती हुई पुकार,
में दिखता हूँ कभी कातर, कभी निस्तेज सा ,
कभी निराशा का समंदर लिए , कभी आशा की बूँदें पिए ।
श्वास-प्रश्वास के संघर्ष में उलझी हुई जिन्दगी,
मैं एक चिकित्सक, कोई है क्या मेरी भी वेदना का संहारक,
कोई तो हो मेरे भी दुखों का निवारक !
पर पीड़ा की करुना से मेरा दिल द्रवित और अशांत ,
पर स्वयं अपने ही ह्रदय की धड़कनों को,
शांत करने की कला से अज्ञात ।
ये सुई की नोक पर झूलती जिन्दगी ,
कभी रक्त, कभी आँसू, कभी हँसी,कभी मौत की खामोशी !
कभी असीम हर्ष , कभी असीम संताप ,
कभी खिलखिलाती हंसी , कभी विकट प्रलाप ।
कोई नहीं देखता मेरे हाथों में कांपती सर्जरी की छुरी,
हर कट में, हर टांके में, जीवन का नया अध्याय ढूंढती ,
पर कहीं गहरे में ,मानो जिंदगी अपनी राह ढूंढती ।
क्या कभी मेरे आशियाने में भी खुशी का दीप जलेगा ?
क्या कभी इन आँखों में भी सुकून सपन सजेगा ?
कभी इस दिल की थरथराहट थमेगी?
या हमेशा इसी युद्धभूमि में, पीड़ा की छाया में ही जिंदगी कटेगी?
‘असीमित’ , अथाह अंतर्वेदना की ख़ामोशी लिए ,
समाज की थोपी आशाओं की गर्मजोशी लिए |
जीवन और मृत्यु की अनंत लड़ाई में नहीं जाना है मुझे हार ,
बस कोई हो जो सुन ले मेरी अनसुनी पुकार।
स्वरचित –डॉ मुकेश “असीमित ‘