एक गुनाह हो गया मुझ से
एक गुनाह हो गया मुझ से,
जिस कि सजा भुगत रहा हूँ,
इंसान बन कर धरा पर आ गया हूँ,
विवशता और मोह के बंधन में खो गया हूँ !!
न होता जन्म , तो शायद कहीं और होता.
रोजाना कि जिन्दगी में ,इस तरह से तो न खोता,
कितना सहूँगा इस जीवन कि अभिलाषाओं को,
पल पल , तड़प तड़प कर जिन्दगी में तो न रोता !!
रिश्तो कि बागडोर, केवल मतलब तक ही रहती है,
यह आत्मा सुबह से शाम तक न जाने क्या क्या सहती है,
एक घडी में खुद हँसता, और दूसरी घडी में खुद रोता हूँ,
एक गुनाह हो गया जो मुझ से ,जिस कि सजा भुगतता सोता हूँ !!
कवि अजीत कुमार तलवार
मेरठ