एक ग़ज़ल
मेरी एक ग़ज़ल
गाँठ रख दिल में छुपाकर यार इसको खोल मत,
दौर है यह चुप्पियों का मान भी ले बोल मत ।
फिर मसीहा चाहिए सूली चढ़ाने के लिए,
तू भला है कह रहा हूँ ; आज खुद को तोल मत ।
यार बरसों से रहे हैं , चैन से हम सब यहाँ ,
नफरतों के जहर को अब तू दिलों में घोल मत !
है सभी का हक हवाओं पर यही कहते रहे,
पाबन्धियाँ हैं कह रहे हैं,खिड़कियाँ अब खोल मत।
मैं नहीं कहता बुराई है शराबों में मगर,
चैन से पी बैठकर तू लड़खड़ाता डोल मत ।
– श्रीभगवान बव्वा