एक किराए का कमरा।
एक किराए का कमरा था,
जो बना मेरा हमराज़,
रिश्ता था उस कमरे से ऐसा,
ताउम्र रहेगा नाज़,
कमरे ने मेरी निराशा देखी,
एक बोझिल दौर की हताशा देखी,
कभी मेरी खुशी का गवाह बना,
कभी नाकामी मेरी बेतहाशा देखी,
कमरे ने देखा सिसकते मुझे,
कभी मुझको खिलखिलाते देखा,
देखा कभी बिखरते मुझे,
कभी सपनों को मेरे झिलमिलाते देखा,
दौर पे दौर गुज़रते गए,
कमरे में कल्पनाओं का चित्र बना,
हर रूप से मेरे वाकिफ था जो,
ऐसा मेरा वो मित्र बना,
क्या ख़ूब था वो कमरा जिसने,
पाँच साल में एक ज़माना देखा,
लड़ते देखा झगड़ते देखा,
दो भाइयों का बेमिसाल याराना देखा।
कवि-अंबर श्रीवास्तव