एक किताब लिखूं
सोचा एक किताब लिखूं।
उसमें तेरा जिक्र लिखूं।
सुबह से शाम हुई।
सोचते हुए रात भी बीती ।
क्या लिखूं समझ न आया।
तू तस्वीर है या मेरा साया।
सांसों में बसा लिखूं।
या धड़कनों में समाया।
कश्मकश थी अजीब।
प्रतीक्षा की घड़ी भी करीब।
धड़कनें धड़क रही थी।
नाम से तेरे।
सांसें भी चल रही थी।
आस में बस तेरी।
रोमछिद्रों में तेरा वास।
तुझ बिन न लूँ मैं स्वास।
हार गयी,थक कर चूर हुई।
आदि मिला न अंत तेरा।
तन-मन की बात नहीं।
तू तो बसा है आत्मा में।
मिश्री की तरह।
समाया है लहू में।
सुर्ख रंग की तरह।
कैसे अलग तू और मैं।
मेरे प्रीतम अब तू ही बता।
जीवन की अनन्त गहराइयों में।
तेरा ही अक्स, तेरा ही साया।
अब कैसे मैं तेरा जिक्र करूँ।
कैसे मैं कोई ग्रन्थ लिखूं।
सोचा फिर एक किताब लिखूं।।
आरती लोहनी