एक कली
एक कली उपवन में खिल गई सोलहवें ही साल में।
रंग सुनहरी बालों में था और गुलाबी गाल में।
देखकर भंवरा सलोना आ गया उस बाग में।
नाचने गाने लगा वो प्रेम के सुर ताल में।
बहक गए कदम कली के सुन के प्रेम राग में।
फंस गई आकर उसी के झूठे प्रेम जाल में।
रात भर काटी भौंरे ने प्रेम के आगोश में।
भोर होते उड़ गया वो छोड़ उसी के हाल में।
लुट गई कली उसी के झूठे प्रेम पाश में।
बेरहम बेदर्द दे गया दर्द सोलहवें साल में।
दिल में दर्द आंख में आंसू हूक सी उठने लगी।
कैसा बेदर्द वक्त था जब आई उसी की चाल में।
रब करे ऐसा न आए वक्त किसी के साथ में।
मुरझा गया चेहरे का नूर रोती रही उस हाल में।।
ललिता कश्यप