एक और द्रोपदी
यु( क्षेत्र में गान्धारी नन्दन
की, क्षत-विक्षत काया।
देख वीर दुर्योधन की
पत्नी का मन भर-भर आया।।
भू लुंठित तन, रक्त से लथपथ,
अर्ध मूर्छित, शस्त्र विहीन।
हाहाकार किया मन में,
लख अपना जीवनधन श्रीहीन।।
हाय द्रौपदी कह, कराह,
दुर्योधन ने करवट बदली।
भानुमती के कानों में बस,
उतर गई पिघली बिजली।।
अन्त जान अपने पति का
वह, सहमी सी-घबराई सी।
चरण अंक में लेकर पति के,
बैठ गई परछाई सी।।
नेत्र खोल दुर्योधन ने,
देखा अपनी अर्धांगी को।
अश्रुपूर्ण नयनों का काजल,
श्याम करे हतभागी को।।
कंपित अधर देख दुर्योधन
का, भी जी भर आया था।
नयनों से संकेत किया,
भानु को पास बुलाया था।।
धीरे से उसकी जांघों पर,
अपने मस्तक को रखकर।
मृत-सा हाथ धरा फिर उसके,
आकुल-व्याकुल अधरों पर।।
पति के नयनों की भाषा,
क्यों ना समझे, वह नारी थी।
स्वाद पराजय का चक्खा था,
अपने मन से हारी थी।।
उसके पास बहुत कुछ था,
जो कहना उसको था पति से।
मौन मुखर था उसका, बोली
मन ही मन, उस दुर्मति से।।
मैं गीता का श्लोक नहीं,
जो मन में तेरे उतर जाऊँ।
वाणी नहीं ड्डष्ण की जो,
कर्तव्य के लिए उकसाऊँ।।
पाँचाली के केश नहीं,
जो आहत तेरा अहम कर दे।
हिमगिरि का हिम नहीं बनी,
जो मन में शीतलता भर दे।।
उष्मा नहीं सूर्य की मैं,
जो अग्नि धमनियों में भर दे।
सिवा रूप के नहीं कोई गुण
कैसे तुम मेरे बनते?
मैं गुणहीन उपेक्षित उजड़ा
वृक्ष, जहाँ आते-आते।
शीतल मन्द पवन के झोंके,
भी तो सहम-सहम जाते।।
हुआ निर्थक जन्म धरा पर,
जीवन व्यर्थ गया सारा।
नहीं बहा पाई मैं, एक
हृदय में भी तो सुख धारा।।
संध्या का आगमन हुआ,
पंछी भी घर को लौट चले।
मेरे मूढ़ स्वप्न आखिर,
तेरे नयनों में कहाँ पले?
नहीं दूर तक यात्रा में
सा-निध्य तुम्हारा पाया है।
किन्तु विदा होने का प्रियतम,
समय निकट अब आया है।।
हाय विदा वेला में मुझको,
याद बहुत उपलम्भ हुए।
प्रियतम! मेरी ओर निहारा,
तुमने बहुत विलम्ब हुए।।
मुझसे अधिक कर्ण प्रिय तुमको,
मुझसे प्रिय तुमको है यु(।
मेरे प्रेम पाश में बंधकर,
हुए नहीं, क्षणभर शरबि(
पाँच पाँच पतियों को कैसे
उस पाँचाली ने बाँधा
केश खुले रखकर भी कैसे
उसने काम बाण साधा
रही तुम्हारी शत्रु सदा ही
कैसे उसे गुरू मानूँ
मैं पति की अनुचरी
राय दुर्योधन, मैं इतना जानूँ
पति की नेत्र हीनता को
लखकर माता गांधारी ने
नेत्रहीनता ओढ़ किया
अनुसरण पति का नारी ने
गांधारी का बिम्ब रही मैं
तुम धृतराष्ट्र न बन पाए
कहीं महाभारत में मेरे
साथ गए न दिखलाए
फिर फिर मेरे मन में आकर
कहीं द्रोपदी चुभती है
दुःशासन कहता था, मेरी
भुजा अभी तक दुखती है
कहाँ द्वारकापुरी जहाँ से,
नंगे पाँव ड्डष्ण दौड़े
दुःशासन था अनुज तुम्हारा
कैसे अपना हठ छोड़े
एक वस्त्र में देख द्रोपदी को
मैंने यह सोचा था
ऐसा क्या था उसमें
जिसने हृदय तुम्हारा नोचा था
उस काली कृष्णा में ऐसा
क्या आकर्षण रहा भला
ऐसा क्या था उसमें, जिसने
मेरे पति को बहुत छला।
पाँच पाँच पतियों के रहते
खुले केश शृंगार विहीन
जब भी देखो उसे, द्रोपदी
लगती सदा दुखी और दीन
अग्नि शिखा-सी जलती वह
जर्जर अपना तन करती थी
घृणा और विद्वेष पाण्डवों
के मन में नित भरती थी
उधर द्रोपदी, इधर महत्वाकांक्षा
पूज्य पिता श्री की
शोर्य पार्थ का, बु( ड्डष्ण की
मिले, विजय तो निष्चित थी
डाह द्रोपदी से तो होती है
लेकिन यह भी सच है
किया तुम्हीं ने कपट द्यूत
और शकुनी मामा दुर्मत है
कहाँ पाण्डवों और कृष्ण ने
नारी का अपमान किया
बढ़ा कृष्ण का सुयश
सभी को, यथा योग्य सम्मान दिया
बाल्यकाल में नन्द भवन में
जसुमति को दीं मुस्कानें
राधा और गोपिकाओं के
भाव-भक्ति वह पहचाने
सूर्यसुता कालिंदी को भी
उसने पूरनकाम किया
जननी और जनक को करके
मुक्त, तभी आराम किया
दोष भला क्या है कृष्णा का,
सदा-सदा वह भेंट चढ़ी।
पुरुष जाति की आकांक्षा की,
तप्त शिला पर रही खड़ी।।
जहाँ पाण्डु पुत्रों ने अपनी,
माँ का वचन निभाने को।
अन्न सरीखा बाँट दिया
अमूल्य मुक्ता के दाने को।।
वहीं बालिका कृष्णा अपने,
पिता द्रुपद का वैर लिए।
पली-बढ़ी और यौवन पाया,
नारी कैसे दैव जिए?
दोष द्रौपदी का इतना है,
कर्ण को हृदय न दे पाई।
इसीलिए, वह ‘सूतपुत्र’ कह,
भरी सभा में चिल्लाई।।
तुम्हें उसी ‘काली’ कृष्णा ने
ही, अन्धे का पुत्र कहा।
जिसकी जलती दीपशिखा पर,
हृदय तुम्हारा मुग्ध रहा।।
मैं हत्भाग्य, रूप की मारी,
इक आहत अभिमान लिए
मन ही मन द्रौपदि से जलती,
मन में झूठा मान लिए।।
उसी द्रौपदी का तुमने,
जी भर कर है अपमान किया।
नारी को अपमानित करके,
कहो ‘मान से कौन जिया?’
मैं माटी का क्षुद्र धूलिकण,
मैल न मन में तुम लाना।
मैंने तुम को किया क्षमा,
तुम मुझे क्षमा करते जाना।।
उस नारी से कौन अधिक,
अपमानित होगा कन्त कहो।
जिसने पति के नयनों में,
देखा ही नहीं वसंत कहो?