एक और एक ग्यारह
***एक और एक ग्यारह**
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बचपन से ही सुनते आए हैं,
चिर परिचित सी कहावत है,
एक और एक होते हैं ग्यारह,
बाजुएं हो जाती जैसे बारह,
लेकिन तभी होती चरितार्थ,
जब जीवन का हो सरलार्थ,
साथ खड़े संग बन के सहारे,
मुश्किल में न हो हम बेसहारे,
रिस्तेदार,नाती औऱ भाईचारा,
बन जाए तब सारथी हमारा,
दोस्त और सब सिपहसालार,
खड़े हों साथ बन कर कतार,
संकट हो जाता है तार तार,
मिले मौजें-बहारें और प्यार,
बंधे सिर पर एकता की दस्तार,
नाव हो पार,हो संग पतवार,
फलता फूलता सारा परिवार,
साथ हो सभी का प्रेम प्यार,
लेकिन हाल हो जाए बेहाल,
स्थिति बद से बदतर,बदहाल
समय चक्र का होता है कमाल,
बिछ जाता है जैसे कोई जाल,
फंस जाता है बीच मंझदार,
नहीं रास्ता, मंजिल, पतवार,
और फिर उठती है यह टेक,
एक और एक रह जाए एक,
रास्ते चाहें हो फिर भी अनेक,
नहीं मिलती मंजिल और टेक,
आदमी रह जाता है अकेला,
नहीं लगता जब जीवन मेला,
भाईचारा, दोस्त और रिश्तेदार,
पहन कर के जूती तिलेदार,
छोड़ जाएं अकेला बीच बाजार,
कर जाए पूर्णतः दरकिनार,
मनसीरत रह जाए फिर अकेला
निकल जाता समय का ठेला……।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)