एक और एक ग्यारह
—-एक और एक ग्यारह—
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बचपन से ही सुनते आए हैं
ये चिर परिचित सी कहावत
एक और एक होते हैं ग्यारह
बाजुएं होती हैं हमारी बारह
लेकिन तभी होती चरितार्थ
जब जीवन का हो सरलार्थ
जब साथ खड़ा हो हमारे
मुश्किल में ना हो बेसहारे
हमारा सारा ही भाईचारा
बन कर के हमारा सहारा
बोलते हों यदि जयकारा
मकसद हल होता हमारा
दोस्त और हमारे रिश्तेदार
खड़े हों साथ बना कतार
संकट हो जाता तार तार
मिले मौजें-बहारें और प्यार
बंध जाए सिर पर दस्तार
नाव हो पार,हो संग पतवार
फलता फूलता है परिवार
साथ हो सभी का प्रेम प्यार
लेकिन हाल हो जाए बेहाल
स्थिति बद बदतर बदहाल
समय चक्र का यह कमाल
बिछ जाता है कोई जाल
फंस जाता है बीच मंझदार
नहीं रास्ता, मंजिल, पतवार
और फिर उठती है यह टेक
एक और एक रह जाएं एक
रास्ते चाहें हो फिर अनेक
नहीं मिलती मंजिल और टेक
आदमी रह जाता है अकेला
नहीं लगता जब जीवन मेला
भाईचारा, दोस्त और रिश्तेदार
पहन कर के जूती तिलेदार
छोड़ जाएं अकेला बीच बाजार
कर जाएं पूर्णतः दरकिनार
सुखविंद्र रह जाए फिर अकेला
निकल जाता समय का ठेला
सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)