एक औरत
एक औरत
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एक औरत ही सम्हाले है
बागडोर घर की।
जिम्मेदारियां है अपनी सारी निभाती,
फिर!कोई क्यों नहीं समझता —
भावना उसकी—
तन,मन,धन सब समर्पित हे करती
परिवार के लिए!
सब कुछ हंस कर हे!सहती
फिर भी जरा सा उफ!नहीं करती—
अपना सारा असितत्त्व भूल जाती,
एक औरत ही—–
कभी पति तो कभी,सासु मां की,
देखती खुशी सबकी!
पर!कोई कहां करता परवाह उसकी–
घर -बाहर की जिम्मेदारी हंसकर हे
निभा जाती—
एक औरत ही—–
उसके होते हुए किसी पर,
कोई आंच ना आने पाती।
सबके लिए दुआ करती,
सबके लिए प्रभु से प्रार्थना हे करती—
एक औरत ही—–
सब खुशहाल रहें,सबकी लम्बी उम्र
के लिए —
भगवान से विनती हे करती।
परिवार में ही अपनी अनंत
खुशियां ढूंढ लेती—-
घर को स्वर्ग बनाकर,
सारा संसार ही अपने घर को
बना लेती!!!!
एक औरत ही ——
सुषमा सिंह *उर्मि,,