एक अकेला
एक अकेला ,
आया था इस शहर में,
ढूँढने चंद सिक्के,
क़ीमत हर एशो-आराम की,
छोड़ आया था पीछे,
अपनी घिसी-पीटी सी ज़िंदगी,
बहुत आम सी,
सोचा था शहर में, सपने पलेंगें
और गाँव में अपने,
पर निगल गया उसे इस शहर
का राक्षस,
रात-दिन एक करते करते,
भूला वो सब सपने सब अपने,
सिक्कों ने अपना असली रंग दिखाया,
देखो !! देखो वो बौराया,
अब दिखता है वो जो दिखाता है यह शहर,
करता है वो जो यह सिक्का है करवाता,
आज शहर का वो है भाई कहलाता,
उसे कभी नही है अब वापिस जाना,
बन माया का ग़ुलाम अब है मर जाना,
एक अकेला,
शहर और सिक्कों का खेला,
वो अकेला……..