एकाकी
इस भीड़ युक्त दोपहरी में
मन मेरा एकाकी;
साथी तो जग सारा
खोजूं मैं सच्चा साथी…
क्रंदित हो उठा है हृदय
सब में छिपी है निश्चित प्रलय ;
सर्वथा सर्वव्याप्त एक भय
सफलता है पूर्व ही तय
ज्यों-ज्यों नित प्रभा आती
खोजूं सच्चा साथी…………
शाश्वत प्रकृति ने किया नियमन
करे वो ही नित्य परिवर्तन
संवेदना जो मृत पड़ी है
आत्मा जो प्रत्येक डरी है
सवार्थ कि पंक्ति बड़ी खड़ी है
त्याग समर्पण का अभाव
या दृष्टि में मलिन भाव
हर पल विरह गीत गाती
खोजूं सच्चा साथी
…………………….