एकाकी मन
सुबह से मन बड़ा ही एकाकी महसूस कर रहा था। सोचा कुछ नया किया जाय। कल रात से ही ठंड बहुत थी। सुबह होते होते कोहरे की सफेद घनी चादर ने मानो सब कुछ ढक लिया हो। रजाई से बाहर निकलते ही शरीर बहुत देर तक ठिठुरता रहा। कई बार सोचा और हिम्मत कर घर से निकलने का मन बनाया । अपनी गाड़ी के सारे शीशे ऊपर चढ़ाकर बाज़ार की तरफ कुछ खरीदने निकला । ट्रैफिक सिग्नल के पास एक छोटे से बच्चे को फुटपाथ पर नंगे पैर गरम चप्पल बेचते देखा तब लगा कि कुछ खरीदने कि हैसियत ही नहीं है।
” मन फिर एकाकी हो गया ”
-विवेक जोशी “जोश”