एकाकीपन
जैसे-जैसे यह समय गुजरता जाता ,
वैसे-वैसे ही कुछ घटता सा जाता ,
उमंग में भी कमी होने लगती ,
अच्छी- भली कही भी बुरी लगती ,
भीड़ से दूर अकेलापन मन को भाता ,
अजीब से अंतरद्वंद में मन उलझा रहता ,
रिश्तो में वो मिठास भी ना नज़र आती ,
दोस्ती में वो क़शिश भी ना महसूस होती ,
लगता है अतीत में हम थम से गए हों ,
वर्तमान हमसे आगे निकल गया हो ,
बदलते समय को हम स्वीकार्य नहीं ,
या समय के साथ बदलना हमें स्वीकार नहीं ,
इसी उधेड़बुन में हम लगे रहते हैं ,
व्यक्त- अव्यक्त भावना रूपी लहरों के
भवसागर में हम डूबते- उबरते रहते हैं।