उड़ान
उड़ानें भर बड़ी भारी ,गगन को नाप बैठा मैं।
कहां धरती फ़लक तक को , परो से माप बैठा मैं।
थका थोड़ा तो आई याद ,मिल जाये पनाह माँ की ,
मगर माँ को तो धरती पर ही ,पहले छाप बैठा मैं।
नही साया पिता का भी ,नज़र अब मुझको आता है।
गले लग जाऊँ जिसके मैं, न माँ जाया ही दिखता है।
करूँ क्या इस बुलन्दी को ,बताओ कैसे इतराऊँ,
नही कोई यहां अपना , जो हँस के साथ चलता है।
**कलम घिसाई*