उॅंगली मेरी ओर उठी
उँगली मेरी ओर उठी मैं
मौन हुआ जाता हूँ
मानव नहीं मिल रहा ढूँढ़े
किसको गुरू बनाऊँ
किससे कुछ सीखूँ मैं किसके
सम्मुख शीश झुकाऊँ
बरस रहे हैं व्यंग्य चतुर्दिक
तान चुका छाता हूँ
उँगली मेरी ओर उठी मैं
मौन हुआ जाता हूँ
न्याय कचहरी में बिकता है
पुलिस डालती डाका
आतंकी के लिए खुला है
दुनिया का हर नाका
नाकेदार नदारद उसको
खोज नहीं पाता हूँ
उँगली मेरी ओर उठी मैं
मौन हुआ जाता हूँ
हैं सो रहे क्षीरसागर में
प्राणाधार हमारे
क्षीरोदधि मथकर अब उनको
कैसे कौन पुकारे
कुछ न कहूँगा सारे जग से
तोड़ चुका नाता हूँ
उँगली मेरी ओर उठी मैं
मौन हुआ जाता हूँ।
महेश चन्द्र त्रिपाठी