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23 Apr 2024 · 1 min read

उॅंगली मेरी ओर उठी

उँगली मेरी ओर उठी मैं
मौन हुआ जाता हूँ

मानव नहीं मिल रहा ढूँढ़े
किसको गुरू बनाऊँ
किससे कुछ सीखूँ मैं किसके
सम्मुख शीश झुकाऊँ

बरस रहे हैं व्यंग्य चतुर्दिक
तान चुका छाता हूँ
उँगली मेरी ओर उठी मैं
मौन हुआ जाता हूँ

न्याय कचहरी में बिकता है
पुलिस डालती डाका
आतंकी के लिए खुला है
दुनिया का हर नाका

नाकेदार नदारद उसको
खोज नहीं पाता हूँ
उँगली मेरी ओर उठी मैं
मौन हुआ जाता हूँ

हैं सो रहे क्षीरसागर में
प्राणाधार हमारे
क्षीरोदधि मथकर अब उनको
कैसे कौन पुकारे

कुछ न कहूँगा सारे जग से
तोड़ चुका नाता हूँ
उँगली मेरी ओर उठी मैं
मौन हुआ जाता हूँ।

महेश चन्द्र त्रिपाठी

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