उस की आँखें ग़ज़ालों सी थीं – संदीप ठाकुर
उस की आँखें ग़ज़ालों सी थीं
मेरे ख़्वाबों ख़यालों सी थीं
उस की बातों से घर भर गया
उस की बातें उजालों सी थीं
राह तकती हुई शाम की
चंद घड़ियाँ भी सालों सी थीं
दिल की वीरान दीवार पे
आप की यादें जालों सी थीं
ओस ऐसे झड़ी फूल पे
बूँद शबनम की छालों सी थीं
जो दलीलें वफ़ाओं की दीं
सब किताबी हवालों सी थीं
तेरी मेरी ग़लत-फ़हमियाँ
चंद मुश्किल सवालों सी थीं
कौन किस से खुला क्या पता
चाबियाँ सारी तालों सी थीं
दिन तिरे साथ रेशम से थे
रात पश्मीना शालों सी थीं
संदीप ठाकुर