उसने रुह को चूम लिया
मैं फूल सा कोमल धूप पड़ते ही मुरझा गई थी,
समझ गए मेरे जज्बात उसने रुह को चूम लिया।
भावना में बहती हुई सरिता धार सी मैं विचलित,
वो सागर सा विशाल अपने में समाहित कर लिया।
क्षणिक दुख पर मैं व्याकुल होकर रोने लगी ,
वो पर्वत सा निडर आए तुफानों से खेल गए।
जब जब मैं ओस बन कर जमीं पर बिखरी ,
वो सूर्य बनाकर कर मुझे खुद में समेट लिया।
क्या फर्क पड़ता है मैं जज़्बात हूं ओस का बूंद हूं,
वो तो पुरुष है पुरूषार्थ से अपना बना लिया।