उसके चले जाने से
उसके चले जाने से कुछ ज़्यादा फ़र्क़ तो नहीं पड़ा
ना मेरी रातों की तन्हाईयाँ बदली
ना दिन का भीड़भाड़ बदला
साँस भी उतनी ही लिया करता हूँ अब भी
और दिल भी वक़्त पर धड़कता रहता है।
अब पूरे का पूरा बिस्तर मेरा और सिर्फ़ मेरा था
अब तकिये को मोड़ने पे डाँटने वाला कोई न था।
बस ये घर की सीढ़ियाँ ग़मगीन हैं
अब उनपे उसके पैर जो नहीं पड़ते।
घर की छत भी कुछ ख़फ़ा सी है
पूछती हैं मुझसे वो आजकल छत पे क्यों नहीं आती हैं।
आँगन का झूला भी संग उसके झूलने को तरसता है
और वहाँ का फ़व्वारा भी अब नहीं बरसता है
फ़र्श तो जैसे बिना रंगोली बेवा सी लगती हैं
अब रसोई भी बेचारी कहाँ पहली सी दिखती हैं
खिड़कियाँ उसके गानों का इंतज़ार करती रहती हैं
उसके न होने की वजह दीवारें पूछती रहती हैं।
हाँ, बाग़ीचे के सारे फूल भी मुरझा गए हैं
रात के जुगनू भी अब टिमटिमाते नहीं
आसमान भी रातों को खाली खाली लगता है।
अलमारी में रखी उसकी किताबें,
तकिये के कवर पे जो उसने बनाये थे वो फूल
और अचार की सारी बरनीयाँ भी उसे याद करती हैं।
हाँ, उसके चले जाने से कुछ ज़्यादा फ़र्क़ तो नहीं पड़ा
ना मेरी रातों की तन्हाईयाँ बदली
ना दिन का भीड़भाड़ बदला…..
-जॉनी अहमद “क़ैस”