उसकी रहमत की नहीं हद
ग़म-ए-शब मुख़्तसर नहीं भले तवील सही
अपनी हर बात ग़लत दुनिया की दलील सही
फिर भी लड़ते हुए बढ़ाते रहो अपने कदम
आदत-ओ-सीरत-ए-दहर है ख़िज़ा का मौसम
दिल में जो ख़्वाब था बसाया उसे याद रखो
तुमने क्यों पहला कदम था उठाया याद रखो
तेग़-ए-दुश्मन हो सिर पे सामने हो मौत खड़ी
भूल मत जाना कि हिम्मत भी है इक चीज़ बड़ी
इस जहाँ में भले कोई तेरे अहबाब न हो
तू अकेला हो खड़ा कोई भी हम-ख़्वाब न हो
फिर भी हर साँस में फ़तह का यकीं भर लेना
हज़रत अली इब्न अबी तालिब सा लड़ लेना
सहरे का हो सफ़र या कोह पार करना पड़े
डूबकर आग के दरिया को पार करना पड़े
याद रखना कि जिसने इस जहाँ में भेजा है
उसकी रहमत की नहीं हद बड़ा मेहरबाँ है
हज़रत आदम को उसने ख़ाक से बनाया था
जलते शोलों से इब्राहीम को बचाया था
उसने ही नूह से कश्ती बड़ी बनवाई कभी
दिया यूसुफ़ को वो जमाल जिसकी हद ही नहीं
बेहयाई की सज़ा दी थी क़ौम-ए-लूत को
मछली के पेट में बचाके रक्खा यूनुस को
लोहा भी नर्म हुआ दाऊद को दी ताक़त
दी सुलैमान को हवा पे काबू की क़ुव्वत
किया तक़सीम बहर-ए-अहमर को मूसा से
तोहफ़ा बीनाई का अंधों को दिया ईसा से
ख़ातिर-ए-काएनात भेजा रसूल-अल्लाह को
करके नाज़िल क़ुरआन तोहफ़ा दिया दुनिया को
गर कभी राह में मुश्किल मिले तकलीफ़ मिले
या कभी ख़ून का प्यासा कोई हरीफ़ मिले
याद रखना कि जिसने इस जहाँ में भेजा है
उसकी रहमत की नहीं हद बड़ा मेहरबाँ है
-जॉनी अहमद ‘क़ैस’