खेल नहीं
उसकी मोहब्बत है कोई चौपड़ का खेल नहीं,
जो इंतिखाब हुआ कभी तो इंकलाब होगा ।
कल उसकी याद में बहाए थे चार आँसू जहां,
लौट के देखना वहीं मग़रिब-ऐ-सैलाब होगा ।
कौन देता है बाज़ार में सल्सियत को खिताब,
जितना लगाइए बोल, सब बेहिसाब होगा ।
दौर-ए-ख़ुदा तेरी बरकत से भरी महफ़िल में,
एक भी दिख गया इंसां तो लाजवाब होगा ।
यार के कूचे को लेके अब भी वहम रखते हैं,
जनाब अपना वहाँ दौलत-ए-रोआब होगा ।
जिस सुबह मेरे दर का रुख करेंगे उसके कदम,
‘अभि’ अब तो ख़ुदा से उसी दिन आदाब होगा ।
© अभिषेक पाण्डेय अभि