उसका होना न होना अर्थहीन हो चुका था
उसका होना न होना अर्थहीन हो चुका था
वो डूबती निकलती संसो की तरह
मुझ में ही समाहित हो चुका था
उसका मुझ में ही ठहर जाने को
मैं ठीक उसी तरह महसूस कर पा रही थी
जैसे जलती हुई स्वेत दंडिका के
लय बद्घ कश को महसूस किया जाता है
अंदर, अपने बहुत अंदर
जैसे नस नस में समाहित हो गया हो
धुआं की तरह
जैसे वो कभी बाहर इस जीव जगत में
रहा ही न हो मुझ से इतर
उसके उस ठहराव को
मैं महसूस कर पा रही थी
हथेलियों पर नहीं
अंदर के वीराने में मुझ में सतत
~ सिद्धार्थ