उलझन
मोहन सुलझा भी दो
मेरी यह उलझन
मेरी, बांसुरी से
कोई नही है,अनबन
स्वांस की सुरभि,स्वर साथ लेकर
उन्मुक्त हो कर बहती,कहती
मै कान्हा के उर रहती
तब भागती आती हूं वृंदावन
मोहन, सुलझा भी दो
मेरी यह उलझन……
मैं तो कहती हूं,करने दो हमें
चरणों का वन्दन
स्वयं ही बने,हृदय का बन्धन
अब किससे कहूं,यह पीड़ा
अपने हिय का करूण-क्रंदन
बांसुरी का स्वर से आलिंगन
मेरी इच्छा, निज उर रहने की
हे ! यशोदानन्दन
मोहन, सुलझा भी दो ना
मेरी यह उलझन…।