उलझते रिश्ते
उलझते रिश्ते ….
रिश्तों की आपस-दारी रखने को
फ़नाह होती उम्र बचा ना सके
कच्चे निकले सब धागे वो
गिरह तक पक्की लगा ना सके
बूंद दर बूंद सींचा फिर भी
जड़ों को उनकी गहरा ना सके
वो दूर चमकता तारा इक
धोखा नज़र का था बेशक़
इतनी सी बात हम इस दिल को
बतला ना सके समझा ना सके
क्या गुमां करे ख़ुद पर हम
और क्या रूबरू हो उनसे
हक़ीक़त तो दूर की बात रही
ख़्वाब में भी उनको बुला ना सके
करीब से जब गुज़रे थे उनके
ख़ामोश रहे कुछ बतला ना सके
चोट ऐसी लगी थी दिल पे जिसे
सरेआम किसी को दिखला ना सके
आसाँ ना था ये सब सहना
फ़रेब में ख़ुद को भरमा ना सके
उम्र खर्च हो चली रफ्ता रफ्ता
इक लम्हा भी उनको कब भूले
आँखों से बेशक़ वो दूर रहे
यादों से दूर कभी जा ना सके
दीपाली कालरा