उर्वशी कविता से…
सिर मुकुट कान कंचन कुंडल,
कृपाण धनुष और बाण लिये।
अद्भुत आकर्षण पुरु नृप का,
बन बाण लगा उर्वशी हिये।
निज मन से कहती है तरुणी,
यह कौन कहाँ से आया है,
भरी ज्येष्ठ दुपहरी में सहसा,
अति शीतल पवन बहाया है।
अपलक दोनों लोचन कहते,
लगता पतझड़ मधुमास बना।
दामिनी एकाएक जब चमके
हो घोर तिमिर वारिद से घना।
बिन वीणा के झनकार बजे,
बिन पुष्प सुंगध पसारे पवन।
उर्वशी के उर में आ के बसा,
वह न जाने यह पुरुष कवन।
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निवृत हुआ दायित्वों से,
रात्रि में पुरु विश्रामलीन।
सहसा बजती रुनझुन की ध्वनि,
सम्राट शांति को लिया छीन।
उठ बैठा इधर उधर देखा,
सोचे नीरव में आया कौन?
कैसी मादकता घेर रही,
लोलुप है मन भरमाया कौन?
नूपुर की छन छन ठिठुके पग,
बेनी गजरा कजरारे नयन।
अपलक मुझे कौन निहार गया,
अवरोधित कर गया मेरा शयन।
कैसे आये पुर के भीतर,
जबकि कपाट दोनों हैं बंद।
संयम पर मेरे प्रहार करे,
दो अधरों की मुस्कान मंद।
पहले तो कभी नहीं देखा,
ओझल रहकर प्रत्यक्ष हंसी।
अरे रे रे ये तो वही है जो,
सुरलोक गमन करे उर्वशी।
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पुरु राजा न्यायी धैर्यवान,
गुणवान वीर जग में नामी।
नारी आकर्षण मोह के बस,
दिखता निरीह बिल्कुल कामी।
सम्राट पुरु थे दुखी बहुत,
बिछुड़न की बेला बहुत खली।
पुरु के पुर से अलविदा कहा,
उर वशी उर्वशी स्वर्ग चली।
(उर्वशी कविता के कुछ अंश)