उर्मिला व्यथा
सुन रे ओ मलय पवन
मेरा इतना बैरी न बन
तेरी ये बयार मुझे दहकाती
सुरभि न तेरी मुझे महकाती
मनमानी कर मुझे सतावे क्यों?
मुझ बिरहन को जलावे क्यों?
री कुसुम-कली क्यों इठलाती
क्या तू मुझको है बहकाती?
तू स्निग्ध गात पात संग अठखेली
मुझ पर मनसिज की भौंहें खेली
पर विफल कुसुमायुध के आयुध सारे
रहूँ अडिग अनंग शर कोई मारे
घन घन-घनकर घने बरस रहे
ये नयन प्रियतम को तरस रहे
जबसे कंत गए रे कानन
अक्षि बरसे बनकर सावन
क्या हृदय में मुझको वे लाते होंगे!
क्या बरखा-बिंदु उन्हें भी जलाते होंगे!
पर जानूँ उनको वे कर्तव्य-विमुख न होंगे
बिना पूर्ण प्रण किए मेरे अभिमुख न होंगे
हैं नाथ धर्म के गहन वन में
कौंधा विचार उर्मि के मन में
सौमित्र नहीं विषयगामी बनूँगी
स्वामी तुम्हारी ही अनुगामी बनूँगी
बिन पिय विपद् हाँ झेलूँगी
मैं उर्मि समय-ऊर्मि में खेलूँगी
पर नारी मन है भर आता ही है
बिन सींचै प्रसून कुम्हलाता ही है
बरसेंगे मेघ, मलय-कुसुम भी होंगे
पर नाथ अहा! अभी संग न होंगे।
सोनू हंस