उर्दू को मुसलमाँ।
यही तो दिक्कत है तुम्हारी तुम उर्दू को मुसलमाँ समझते हो।
पैदाइश है ये हिन्दुस्ताँ की तुम इसे गैरो की जुबाँ समझते हो।।1।।
ये कौन सा बाजार है जहाँ इंसानो की तिजारत होती है।
बोली लगती है यहाँ आबरु की तुम आबरु को सामाँ समझते हो।।2।।
कहाँ ढूढते हो तुम खुदा को इधर से उधर मस्जिद-ओ-मंदिर।
घर में ही है अक्स उसका जिसे तुम अपनी माँ समझते हो।।3।।
नसीहतें सदा काम आती हैं ज़िन्दगी में बुजुर्गों की हमारें।
तुम इन नसीहतों को क्यों ऐसे फर्जी का बयाँ समझते हो।।4।।
सुमार होता था उसका एक वक़्त शहर की आला हस्तियों में।
वह है उस कोठी का मालिक जिसे तुम दरबान समझते हो।।5।।
नाकाबिले गौर है तुम्हारा इस तरह से ज़िन्दगी का जीना।
वह है बड़ा ही होशियार जिसे तुम नादान समझते हो।।6।।
ताज मोहम्मद
लखनऊ