उम्र भर इस प्रेम में मैं बस तुम्हारा स्वप्न पाऊंँ
इस हृदय का भाव गर,तुझको नहीं स्वीकार प्रियतम…
तो भला मैं स्वयं से कैसे कहो नज़रें मिलाऊँ।
ज्ञात है गंतव्य पर हो चुका अधिकार किसका,
हूं प्रतीक्षारत तुम्हारा,उम्रभर ठहरा रहूंँगा।
मैं किसी भी शख्स का कायल नहीं एक क्षण भी..
चाहता हूंँ बनके पायल,तेरे पग में झुनझुनाऊंँ।
इससे बेहतर क्या भला है, मैं तथागत गीत गाऊँ
यह सरल बिलकुल नहीं है,इक क्षण सा बीत जाऊंँ।
प्रेयसी का जन्मस्थल भी तपोस्थल ही है तो
हर बरस उस तीर्थ के दर्शन का सौभाग्य पाऊंँ।
दिन आ रहा है प्रेम को पुरुषार्थ का सामर्थ्य करने।
उसमें मेरी क्या दशा है,मैं भला कैसे बताऊंँ
और मैं शंकर नहीं हूंँ जो उमा को मांँग पाऊंँ।
एक कवि वैराग्य का हर एक मतलब जानता है।
स्नेह के ठहराव में हर वर्ण को पहचानता है।
हां कदाचित जानता है विरह की व्याकुल व्यवस्था।
किंतु अपने प्रेयसी को ब्रह्म सम्मुख मानता है।
जन्म पाया है सतत सद साधना सानिध्य में
उम्र भर इस प्रेम में मैं बस तुम्हारा स्वप्न पाऊंँ।
दीपक झा रुद्रा