उम्मीद न होंगी…
साहब…..
शहर में कुछ अशांति सी दिख रही,
कोई बोल रहा था कि….
जो किया वो अच्छा ही था,
मगर कोई बोल रहा हैं…
चौखट के बाहर निकाली ही क्यों?.
अग़र टूट गयी कही तो,
हाथों की उम्मीद न होंगी…
अगर रो गयी कही तो,
सूखे गालों की उम्मीद न होंगी…
यह राह तो जाना पहचाना था,
पर राही थी अकेली….
सब कुछ तो अपना ही था,
मगर मैदान में थी अकेली….
यहाँ आंखों के आशियाने लिए,
बहूत सारे बैठे होंगे…..
मग़र वो हर पल बेवफाई के पानी लिए,
आँखे भिगोने वाले होंगे…
आकाश में उड़ता हुआ पंछी बारिश में,
बादलो की आहट में नहीं छुपता,
मग़र तेरी अदित्य रूह के लिए,
तेरे अपने भी खड़े होंगे…..
–सीरवी प्रकाश पंवार