उम्मीद की कस्ती
हर संघर्ष मे, तपना पड़ता हैँ //
लोहे की तरह, गलना पड़ता हैँ //
एक बार नहीं, कई बार टूटना पड़ता हैँ //
क्रोध की धधकती, लौ मे भी जलना पड़ता है //
सायद सपनो को भी कभी, टूटना पड़ता हैँ //
उम्मीदों को भी साथ, छोड़ना पड़ता हैँ //
सायद, सपनो का सौदागर बनने से चूक जाऊ //
क्युकी यहां तो, आशा की कस्ती को भी डुबोना पड़ता हैँ //
जिन्दगी का हर एक क्षण, एक जंग हैँ साहब //
यहां हर एक बून्द रक्त से, इसका हिसाब करना पड़ता हैँ //
कविराज:-श्रेयस सारीवान