उम्मीदें
उम्मीदें
भी आज
बेगैरत
हो गयी है
दिखाती है
बस सपने
हो जाती है गुम
जरुरत हो
जब अपने
भूखे को है
रोटी की
आस
झूठन में
करता तलाश
आस लिये
ईमान
घुमता अकेला
भीड़ है साथ
बेईमान
झूठी उम्मीदे
लगाये बैठे
माँ बाप
बच्चे ग़ायब
तलाशती
बूढ़ी आँख
रहने की आस
टूटती झोपड़ी
बनते महल
बेघर गरीब
करो मत
उम्मीदें “संतोष ”
जिन्दगी से
जब वह ही है
बेवफा
तो आस
कहाँ ? किससे ?
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल