उपहार
‘ मैं तुम्हारे प्यार में पलता रहूँ ‘ — तो ठीक होगा ।
ज़िन्दगी अभिशप्त थी, खामोशी थी प्यासी-जवानी,
अश्रु-कण जब लिख रहे थे, वेदनाओं की कहानी,
प्राण ! तुम प्यासे-पपीहा के लिये घुमड़ी घटा-सी,
बन गयी मरूभूमि की आषाढ़ की बर्षा सुहानी,
ओ विजन में बीन की झंकार ! क्या उपहार दूँ मैं ?
‘मैं तुम्हारे गीत में ढ़लता रहूँ ‘ — तो ठीक होगा ।
भूल थी वह, जब कि मैंने ज़िन्दगी को भार माना,
कामनाओं के उदधि में, वेदना को ज्वार माना,
विश्व को निर्मम समझकर हो गया उपराम सबसे,
साधना को ही अभी तक मुक्ति का आधार माना,
शूल में सौरभ भरी ! भ्रम का नहीं पर्दा रहा अब,
‘मैं तुम्हारी राह पर चलता रहूँ ‘– तो ठीक होगा ।
सच है कि मैंने तेरे रूप में श्रृंगार पाया,
रसभरी ! मैंने तुम्हारे प्यार में उपकार पाया,
कल्पना के लोक में, अब तक रहा भूला भटकता
सुन्दरी ! मैंने तुम्हारे ‘सत्य’ को साकार पाया ,
ध्वंस पर निर्माण की जननी ! यही अभिलाषा है अब,
‘ मैं तुम्हारा दीप बन जलता रहूँ ‘– तो ठीक होगा ।
©रामबन्धु वत्स