उपहार
मन खिन्न बहुत हो जाता है,
जब मिलता है उपहार नहीं।
लगता है सुना सुना सा,
लगता जीवन साकार नहीँ।
कुछ लोग हैं रोते जूते को,
जबकि कुछ के हैं पांव नहीं।
पद उन्नति ख़ातिर कोई तरसे,
कुछ को रोजगार की ठाँव नही।
तृष्णा से ऊपर उठो मनुज,
जो पाया है उपहार कहो।
संतोष ही सार है जीवन का,
प्रतिदिन हरि का मनुहार कहो।
लम्बी फ़ेहिस्त उपहारों की,
उसके देने में नहीं कसर।
लालसा की आग में हम तपते,
हरि कृपा छांव का नहीं असर।
पहला तोहफा मानव जामा,
दूजा सेहत भी है पूरी।
तीजा जर दारा पूत धीया
चौथा धन से घर भरपूरी।
पांचवा प्रतिमाह मिले वेतन,
होता पाकर मन में आनन्द।
फिर भी हैं शुकर न करते जो,
वे जड़ हैं व हैं मतिमन्द।
सौगात अनगिनत रब के हैं,
फिर क्यों ज्यादा को रोते हैं।
सुख दुख कर्मों खेल यहां,
वही पाते हैं जो बोते हैं।
साँस साँस हम पाते प्रतिदिन,
बस मन में आभार चाहिए।
औकात से ज्यादा प्रभु देता,
और कितना उपहार चाहिये।
-सतीश सृजन,