उन्मादों को ध्वस्त सदा कर डालो तुम !
घोर घृणा की आग लगी है , भारत की भाग्य वीथिकाओं में ;
मुरझा रही नित कोमल कलियां, भिन्न-भिन्न कलाओं में ।
डरा सहमा सा जीवन वैभव , होते भयानक उथल-पुथल ;
कुछ ऐसा हो जावे जिससे , खिल-खिला जावे भूमण्डल !
डोल रही प्राच्य पताकाएं, श्रुति स्मृतियां दिग्-दिगंत् ;
बर्बर जिहादी असभ्य नग्न नाच , करता आज इसके अंक ।
परिस्थितियां निस्तब्ध हुई है, दूषित हुई अभिलाषा है ;
पत्थर गोले चलते रक्षकों पर, निरंकुश, बढ़ती प्रतिपल हिंसा है।
जिहादी सिखलाये तन्त्रों पर, कर रहे बेखौफ उच्चार अड़े ,
छूपे समर्थक साद-फसाद स्तम्भ , टुकड़े-टुकड़े हजार खड़े ।
अंतस् के प्रेमिल भावों पर , बहुत विस्फोटों के बौछार पड़े ;
पूरे भारत में करने हा-हाकार , ले पत्थर भारी तैयार खड़े ।
मैले खाये ! मैले पीये ! थूकों को चाटे पोंछे ;
बड़े जाहिल, नासमझ, उन्मादी , बोले भाषा ओछे ।
नैतिकता का कर विलोप , क्रूर, बर्बर असभ्य शैतान हुए ;
भारतभूमि के शत्रु हैवान, देश में थूकलमान हुए।
विषतुल्य रसायनयुक्त खुशियां , बसती इनके सद्भावों में,
उन्मादों के घाव हरे हैं, हर शहर कस्बे गांवों में ।
जिहादी धुन पर थिरक-थिरक, बेहूदे करते गहरे नर्तन ;
विस्फोटों की विकल रागिनी सुन , आहत मानवता करती क्रन्दन !
क्या पुलिस ! क्या डाक्टर ! क्या जनमानस !
क्या ऐसे ही सहना होगा ;
या शासन को कर्त्तव्य बोध का सीधा पालन करना होगा !
क्या कानून रौब दिखायेंगे केवल, प्रतिष्ठित प्रतिमानों पर ;
या कभी साहस दिखला सकेंगे , आतंकों के भरी ठिकानों पर !
निवर्तमान परिस्थितियों का कर मूल्यांकन, हे राष्ट्र त्वरित जगना होगा ;
बारंबार छले गए अभी तलक , कहां-कहां तक छलना होगा !
भव्य भारत के देवालय का , प्रिय ! निसर्ग कर डालो शाश्वत श्रृंगार ;
उदित षड् ऋतुएं के प्रेमिल भावों को , कर सर्वस्व अंतस् में अंगीकार ;
बर्बर मुगालिया आक्रान्ताओं को , दे झोंक दहकते अंगार ;
विषधरों पर टूट पड़ो वज्र सा , डाल असंख्य विपत्तियों का पहाड़ !
इस क्रूर कालचक्र के क्षण में व्यतित , इतिहास सदा लिख डालो तुम ;
जिह्वा से बरसती घातक , जहरीले धारों को, ह्रास सदा कर डालो तुम !
वाञ्छित साधन का साध्य करो , पूर्णतः पृथक् राह विस्तार करो ;
मल-मूत्री विषाणुओं को भूलो , सर्वदा सर्वस्व बहिष्कार करो !
‘ डायरेक्ट एक्शन ‘ नहीं सम्पूर्ण निस्तार करना होगा ;
वीरों की विराट परंपरा का पुनः विस्तार करना होगा !
अतिशय प्रचण्ड उन्मादी धारों को , सदा अस्त कर डालो तुम ;
काल-कवलित , धूल-धूसरित कर, सदा ध्वस्त कर डालो तुम ।
✍? आलोक पाण्डेय